सागर के प्रमुख दर्शनीय व ऐतिहासिक स्थान
बुंदेलखंड के सागर जिले और आसपास के क्षेत्रों में पुरा संपदा बिखरी पड़ी है। सागर से करीब 90 किमी दूर स्थित एरण ऐसा ही एक स्थान है। यहां पहुंचने के लिए सड़क मार्ग के अलावा ट्रेन का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सागर-दिल्ली रेलमार्ग के एक महत्वपूर्ण जंक्शन बीना से इसकी दूरी करीब 25 किमी है। बीना और रेवता नदी के संगम पर स्थित एरण का नाम यहां अत्यधिक मात्रा में उगने वाली प्रदाह प्रशामक तथा मंदक गुणधर्म वाली एराका नामक घास के कारण रखा गया है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि एरण के सिक्कों पर नाग का चित्र है, अत: इस स्थान का नामकरण एराका अर्थात नाग से हुआ है।
एरण के प्रचीनकाल के इतिहास के बारे में मिले पुरातात्वीय अवशेष हालांकि गुप्तकाल के हैं लेकिन यहां मिले सिक्कों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व काल में भी यह स्थान आबाद था। एरण के बारे में माना जाता है कि यह गुप्तकाल में एक बहुत ही महत्वपूर्ण नगर था। प्राचीन संदर्भ पुस्तकों के अनुसार एरण को स्वभोग नगर कहा जाता था। कुछ लोगों का विश्वास है कि एरण जेजकभुक्ति की राजधानी रहा है।
जनरल कनिंघम ने यह सर्वप्रथम प्राचीन एरिकिण नगर की पहचान एरण से की। एरण नामाकरण के संबंध में विद्वानों के कई विचार हैं। एक मत के अनुसार चूँकि यहाँ रईरक या ईरण नाम की घास बहुतायत में पैदा होती है, अतः इसका ऐसा नाम पड़ा। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि यह नाग “ऐराका’ नामक नाग के कारण पड़े। यहाँ प्राचीन काल में नागों का अधिकार था।
एरण की स्थिति भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है। यह एक ओर मालवा का, तो दूसरी ओर बुंदेलखंड का प्रवेश- द्वार माना जा सकता है। पूर्वी मालवा की सीमा-रेखा पर स्थित होने के कारण यह दशार्ण को चेदि जनपद से जोड़ता था। सैनिक नियंत्रण की दृष्टि से भी इस स्थान को गुप्त शासकों ने अच्छा माना।
ऐतिहासिक महत्व को इस स्थान का उत्खनन कराने पर यहाँ के टीलों से प्राप्त सामग्री, मृदभांड एवं स्तर विन्यास के आधार पर ज्ञात संस्कृतियाँ ताम्रयुग से लेकर उत्तर मध्यकाल तक क्रमिक इतिहास बनाती है। पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि एक समय यह एक वैभवशाली नगर हुआ करता था। यहाँ की वास्तु तथा मूर्तिकला का हमेशा एक विशेष मान्यता दी गई है।
एरण गांव में पुरा अवशेषों का विशाल संकलन है। खंडहर के रूप में डांगी शासकों के बनवाए किले के अवशेष भी मौजूद हैं। यहां का सबसे उल्लेखनीय स्मारक एक 47 फुट ऊंचा स्तंभ है जो एक ही शिला से बना है। इसे बुद्धगुप्त के राजकाल में मातृविष्णु और उसके भाई धन्यविष्णु ने खड़ा कराया था।
एरण के नजदीक स्थित पहलेजपुर गांव में एक और अष्टकोणीय स्तंभ है। इसका शीर्षभाग गोलाकार है जिस पर सती प्रथा के संबंध में भारत में ज्ञात सबसे प्राचीनतम् लेख उत्कीर्ण हैं। इसके अलावा भी एरण में कई पुरावशेष मौजूद हैं जिन पर शोध कार्य चलता रहता है।
यहाँ से प्राप्त ध्वंसावशेषों में गुप्तकाल की भगवान विष्णु का मंदिर तथा उसके दोनों तरफ वराह तथा नृसिंह का मंदिर प्रमुख है। वराह की इतनी बड़ी प्रतिमा भारत में कहीं नहीं है। इसके मुख, पेट, पैर आदि समस्त अंगों में देव प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई है। विष्णु मंदिर के सामने 47 फुट ऊँचा गरुड़-ध्वज खड़ा है। इन अवशेषों के समीप अनेकों अभिलेख भग्न शिलापट्टों के रुप में पड़े हैं।
ये सभी तथ्य इस बात के परिचायक हैं कि तीसरी सदी से छठवीं सदी तक मालवा के पूर्वी सीमांत का यह नगर सामरिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक हलचल का केंद्र बना रहा। लेकिन गुप्तकाल के बाद धीरे-धीरे इस समृद्ध नगर का पतन हो गया। संभवतः हूणों ने नगर और प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया हो। संभवतः हूणों ने नगर और प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया हो। इस काल के बाद का कोई अभिलेखिक या मुद्राशास्रीय प्रमाण नहीं मिलते, सिर्फ कई नर-कंकाल मिलते हैं, जो हूणों के आक्रमण को इंगित करता है।
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